Saturday, June 25, 2011

तीसरा हाथ ( कहानी )

-डॉ0 जगदीश व्योम

आज दो दिन बाद ‘बलू’ ने अलाव जलाया। इतवारी काका अनमने ढँग से अलाव के पास आकर बैठ गए। बलू ने चिलम में तमाखू रखी और अलाव में से आग रख कर चिलम को दोनों हाथों के बीच फँसाकर मुँह से सुलगाया। दो-तीन लम्बे कश लगाए और चिलम इतवारी काका की ओर बढ़ा दी। इतवारी काका ने दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए चिलम ली और एक लम्बा कश लगाया। कश के साथ ही उन्हें खाँसी का दौरा-सा पड़ा और वे देर तक खँासते रहे। जब खाँसी थमी तो वे बलू से बोले, ”सरूपी का क्या हाल है?“
”हाल-चाल क्या...... सरूपी ने तो खटिया पकड़ ली है। जब से जै सिंह गया है, तब से उनकी तो दुनिया ही उजड़ गई।“ बलू ने भारी मन से बताया।
”बलू! जै सिंह की मौत ने मुझे भी तोड़ डाला है। सरूपी तो जवान बेटे की मौत को झेल रहा है। उससे अभागा और कौन होगा इस दुनिया में?.......... लेकिन मैं अपने को माफ नहीं कर पा रहा हूँ।
लैगुड़ा वाले कुँआ की घटना मेरी आँखों के आगे हर समय छायी रहती है। मुझे क्या पता था कि छोटी सी, हँसी-हँसी की बात का इतना भयंकर परिणाम होगा।“ -कहते-कहते इतवारी काका की आँखों में आँसू आ गए और गला रुँध गया। गमछे के छोर से आँसू पोंछे और नीचे को सिर झुकाए देर तक कुछ सोचते रहे।
बूढ़े बरगद ने आज पहली बार इतवारी काका को रोते हुए देखा। भारत-चीन युद्ध के समय इतवारी काका फौज में थे। वे बहादुरी के साथ लड़े थे। जब उनकी यूनिट के पैंतालीस जवान वीर-गति को प्राप्त हो गए; तब भी काका की आँखों में आँसू नहीं आए थे; उनकी पत्नी की मृत्यु हुई तो भी उनकी आँखें गीली नहीं हुईं, लेकिन आज आँसू हैं कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।
इतवारी काका की दशा देख बूढ़े बरगद की भी दाढ़ी भीग गई है। उसकी भी आँखों से आँसू टपक-टपक कर उसकी दाढ़ी को गीला कर गए हैं।
बरी वाली चौपाल के एक-एक क्षण का साक्षात्-दर्शी, बूढ़ा बरगद ही तो है। आधी-आधी रात तक अलाव के पास पूरे गाँव की भीड़ लगी रहती थी। कहानियाँ, गीत, भजन, बतौनियाँ सब कुछ बरी वाली चौपाल पर सुनी-सुनाई जातीं। गाँव भर की एक-एक धड़कन की चर्चा इसी चौपाल पर होते हुए बूढ़े बरगद ने सुनी है। सब की आँखों से पूरे गाँव को देखता रहा है बूढ़ा बरगद।
तीन-चार माह पहले की ही तो बात है। चरवाहे लड़के एक सनसनीखेज दृश्य देखकर अपनी-अपनी गाय-भैंसों को गाँव की ओर भगा लाए थे। ‘बच्चू’ भागते-भागते जब चौपाल पर आया तो बुरी तरह हाँफ रहा था। इतवारी काका को देख वह इतना ही तो कह पाया था, ”काका....... ला.....स...... लै.......गुढ़ा..... कुँआ.... मँ..... लास......।“
”कहाँ लाश है?........ किसकी लाश है? पहले तू साँस ले ले, फिर बता आराम से, कि क्या बात है।“ - इतवारी काका ने बच्चू से कहा।
”काका, लैगुड़ा वाले कुँआ में लास पड़ी है। पता नहीं किसकी है।“ - बच्चू ने बात पूरी की।
कुँआ मंे लाश की चर्चा जंगल में लगी आग की तरह पूरे गाँव में फैल गई। जो सुनता, बरीवाली चौपाल की ओर दौड़ा चला आता। धीरे-धीरे पूरी चौपाल भर गई।
इतवारी काका ने प्रस्ताव रखा, ”चलो! चलकर देखा जाए, किसकी लाश है?......... है भी या चरवाहे लड़के वैसे ही डर गए हैं।“
हाथों में मशाल, टार्च, लाठी, डंडे लेकर पंद्रह-बीस आदमी रात में ही लैगुड़ा वाले कुएँ की ओर चल दिए। कुएँ की जगत पर खड़े होकर टार्च की रोशनी में देखा तो लाल साड़ी में सजी किसी औरत की लाश थी। कुएँ में पानी नहीं था। लाश सूखे मंे पड़ी थी। अंदर के किनारों की ओर जानवरों ने खोद-खोद कर खोहें बना रखीं थी और मिट्टी बीच कुएँ में जमा हो गई थी। इसी मिट्टी पर लाश पड़ी थी। मृतक महिला थी और उसकी उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष के करीब लग रही थी। गोरे -गोरे हाथ, हरी-हरी चूड़ियाँ, सुहाग के सारे चिह्न। सबके सब दंग रह गए थे लाश को देखकर।
चौपाल पर पूरी रात बतकही होती रही थी। सब कयास लगा रहे थे, लाश के बारे में। पता नहीं कौन अभागिनि थी? किन भेड़ियों के हाथ चढ़ गई? सभी के मन मेें तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे।
जो लोग देख कर आए थे वे मृतका के रंग, रूप, यौवन, शृंगार, वस्त्र आदि की चर्चा कर रहे थे। तरह-तरह की बातंे हो रहीं थीं। मृतका से चूँकि गाँव का कोई सम्बंध नहीं था इसलिए लोगों की संवेदना छिटक कर कहीं दूर होे गई थी और बीच-बीच में इसीलिए कुछ मजाकिया बातें भी छिड़ जातीं।
इतवारी काका बड़े मजाकिया और हँसोड़ प्रवृत्ति के रहे हैं। जै सिंह की पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा- ”जै सिंह! अगर तुम उस औरत के हाथ में कंगन पहना आओ तो मैं समझूँ कि तुम वाकई बहादुर हो।“
”काका, मैं भी तुम्हारी तरह फौजी हूँ। एक क्या सैकड़ों लाशों के बीच में मैंने रातें बिताई हैं।......... फिर ये क्या बड़ी बात है?“ -जै सिंह ने गर्व से फूलते हुए कहा।
इतवारी काका लाल रँग के दो कंगन अपने पुराने बक्से से निकाल लाए। जाने कब से पड़े थे उनके बक्से में ये कंगन। कंगन दिखाते हुए बोले - ”जै सिंह अगर तुम ये कंगन उस औरत को पहना आओ तो मेरी सब भैंसों में से जो तुम्हें सबसे अच्छी लगे; वह तुम्हारी, सबके सामने मैं यह वचन दे रहा हूँ।“
अब तो प्रतिष्ठा की बात थी जै सिंह के लिए। जै सिंह ने भरी चौपाल पर बीड़ा उठा लिया कि वह पहना कर आएगा कंगन उस औरत के हाथों में।
”कंगन पहनाने की कुछ शर्तें हैं“ - इतवारी काका बोले।
”कहो काका! क्या-क्या शर्तें हैं? अब तो तय कर लिया है इस फौजी ने कि कंगन पहनाना है, बस!......... शर्त बोलो।“ जै सिंह ने कहा।
”शर्तें ये हैं- ठीक आधी रात को तुम्हें अकेले जाना होगा तुम्हारे साथ लाठी डंडा कुछ नहीं होगा। न ही टार्च या मशाल अथवा दियासलाई आदि कुछ भी नहीं।“ - काका ने कहा।
”ठीक है, आपकी सब शर्तें मंजूर। लेकिन काका! एक शर्त मेरी भी।“
”हाँ....... हाँ....... बोलो........ क्या शर्त है तुम्हारी?“ -इतवारी काका ने कहा।
”तम्बाखू की डिबिया ले जाऊँगा अपने साथ।“ जै सिंह ने हँसते हुए कहा।
”क्या उसे तम्बाकू खिलाओगे? अरे! ले ही जाना है तो रबड़ी ले जाओ, बेचारी को तम्बाकू का क्या खिलाओगे?“ -काका की इस बात पर सब खिलखिला कर हँस पड़े।
विचित्र शर्त लगी थी इतवारी काका और जै सिंह की। रात के ठीक बारह बजे और जै सिंह चल दिए लैगुड़ा वाले कुआँ की ओर। दोनों कंगन जै सिंह ने अपने कुर्ते की जेब में डाल दिए। रास्ते में एक दो सियार जै सिंह को मिले जो उन्हें देखकर भाग गए।
जै सिंह कुएँ की जगत पर पहुँच गया। एक पल उसने सोचा और मन पक्का करके कुएँ के अंदर उतर गया। चाँदनी रात में औरत का जिस्म साफ नजर आ रहा था।
जै सिंह अपने मन की लगाम कस कर पकड़े था कि कहीं उसका मन दहशत न खा जाए। कुएँ में उतरते ही वह लाश के पास उकडूँ बैठ गया, जेब से कंगन निकाल; लाश का एक हाथ पकड़ कर एक कंगन पहनाया ही था कि पीछे से एक हाथ अचानक उसके सामने आ गया। जै सिंह कंगन पहनाने में तल्लीन था, उसने हाथ को झटक दिया और बोला ”अभी तुझे भी पहनाता हूँ।“ दूसरा कंगन, दूसरे हाथ में पहनाने लगा तभी पीछे से फिर उसके सामने हाथ आ गया। जै सिंह ने पुनः उसे झटक दिया और बोला- ”तुझे तो अभी पहनाया है, अब इसे पहना दूँ।“
कंगन पहना कर जै सिंह कुएँ से बाहर निकल आया उसे अपनी सफलता पर गर्व हो रहा था। जै सिंह का ध्यान केवल औरत के हाथों में कंगन पहनाने पर था, और किसी ओर उसने देखा ही नहीं। चौपाल पर सब लोग प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि जै सिंह ने आ कर एलान किया कि वह ‘कंगन पहना आया है।’
इतवारी काका बोले, ”सुबह चल कर देखेंगे। यदि कंगन पहनाए हैं तो जो भैंस तुम्हें अच्छी लगे; वह तुम्हारी“
”सुबह क्यों? अभी चल कर क्यों न देखें, सब पता चल जाएगा कि असलियत क्या है? क्या पता सुबह अंधेरे में जा कर कंगन पहना आए। इसलिए मेरी राय तो यह है कि अभी चलकर देखा जाए।“ - किसी ने कहा।
”ठीक है, अभी चला जाय“ -सभी सहमत हो गए। सब इकट्ठेे होकर लैगुड़ा में पहुँच गए। लोगांे ने देखा कि लाश के हाथों में कंगन हैं। अब तो जै सिंह शर्त जीत चुके थे।
इतवारी काका की सबसे अच्छी भैंस जै सिंह के घर आ गई।
जै सिंह के मन में रह-रह कर एक ही बात आती कि आखिर वह तीसरा हाथ था किसका? उस समय तो उसने ध्यान नहीं दिया पर बाद में उसे सब कुछ याद आ रहा था। कि एक हाथ में कंगन पहना कर उसे उसने अपनी गोद में रख लिया था, फिर वह तीसरा हाथ कहाँ से आ गया। इस बात को जै सिंह मन ही मन सोचता रहता। यह भी नहीं कि उसे भ्रम हुआ हो। उसे अच्छी तरह याद है कि उसने दो बार उस हाथ को पकड़ कर झिड़का भी था। ”आखिर किसका था वह तीसरा हाथ?“ - जै सिंह के अंतर मन मंे फितूर का बीज अंकुरित हो चुका था।
दिन-रात जै सिंह उसी की चिंता करने लगा। चूँकि उसने साक्षात अनुभव किया था इसलिए घटना को झुठलाया भी नहीं जा सकता था। जै सिंह इसी चिंता में बीमार पड़ गया। किसी को इस तथ्य कि कानों-कान खबर न थी।
दवा का कुछ असर न होता और धीरे-धीरे जैसिंह ने खाट पकड़ ली। अब तो उससे उठा बैठा भी न जाता। अपने मन का आभास फिर भी जै सिंह ने किसी को न होने दिया।
जै सिंह की हालत देखकर इतवारी काका घबरा गए थे। उन्हांेने तय किया कि जै सिंह को पूरी घटना बता देंगे, शायद उसके मन से भय निकल जाए और वह अच्छा हो जाय।
इतवारी काका जै सिंह के घर पहुँच गए। ”कहो जै सिंह कैसे हो?“ - काका ने यूँ ही पूछा।
”ठीक........ हूँ......... का......का.......“ जै सिंह ने किसी तरह बात पूरी की।
”जै सिंह! आज मैं तुम्हें एक खास बात बताने आया हूँ।“ -जै सिंह ने चारपाई पर लेटे-लेटे ही इतवारी काका की ओर देखा।
”बात ये है जै सिंह! कि तुम्हारे मन में कोई बात है, जिसे लेकर तुम बीमार पड़ गए हो। लेकिन तुम इतने बहादुर हो कि अब भी वह बात तुम्हारे होठों पर नहीं आई है। आज मैं बताता हूँ कि बात क्या है“ - इतवारी काका एक साथ पूरी बात कह गए।
जै सिंह ने इतवारी काका की ओर विस्मय से देखा।
”लैगुड़ा वाले कँुआ में जब तुम उस औरत को कंगन पहना रहे थे, तब एक तीसरा हाथ भी दो बार तुम्हारे सामने आया था परन्तु तुमने उसे झटक दिया। उस समय तो तुमने ध्यान नहीं दिया पर अब उस घटना को लेकर तुम परेशान हो रहे हो।.......... है न यही बात?“
इतवारी काका ने जै सिंह के मन की बात प्रकट कर दी।
”काका....तुम्हें... यह कैसे मालूम है?“ -जै सिंह ने आश्चर्य से कहा।
”अरे पगले! मैं ही तो था उस कुएँ के अंदर तेरे जाने के साथ ही मैं भी चल दिया था। तू घुमाव वाले रास्ते से गया था, मैं सीधा पहुँच गया और अंदर खोह में लेट गया था। मेरा इरादा था कि तुझे ऐसा डराऊँगा कि तू भी क्या याद करेगा। लेकिन तू तो बहुत बहादुर निकला।“ इतवारी काका ने रहस्य खोलते हुए कहा।
”जै सिंह, तुमने एक बात का ध्यान नहीं दिया; वह ये कि जब भी कभी मन मंे कोई भ्रम उपजे तो उसका निवारण तुरंत करना चाहिए। बात टाल देने पर परिणाम भयंकर हो जाता है। तुम अगर उसी समय उस तीसरे हाथ की ओर ध्यान दे लेते तो उसी समय रहस्य खुल जाता और तुम्हारे मन में यह फितूर पैदा ही न होता।“ - इतवारी काका ने गम्भीर होते हुए कहा।
जै सिंह के चेहरे पर पल भर को मुस्कान की रेखाएँ उभर आयीं। परन्तु अब स्थिति काबू से बाहर हो चुकी थी। जै सिंह की तबीयत में कुछ सुधार के आसार दिखे। परन्तु उसका शरीर जो टूटा तो फिर सँभल न सका। दो-तीन महीने मुश्किल से चल पाया।
बूढे़े बरगद की आँखों के आगे आज पूरा दृश्य उतर आया था। इतवारी काका तो केवल जै सिंह को डराना चाहते थे। उन्हें क्या पता था कि तीसरे हाथ के रहस्य की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते जै सिंह इस दुनिया से ही चला जाएगा।
हवा का एक झोंका आया। बूढे़ बरगद की लटकती दाढ़ी धीरे-धीरे हिली। इतवारी काका को लगा मानों बूढ़ा बरगद उन से कह रहा हो -
”किसी की मौत पर कहकहे लगाना अच्छा नहीं होता। मजाक हमेशा सोच समझ कर करो। ऐसा मजाक किस काम का कि किसी के प्राण ही ले ले।“
इतवारी काका को लगा कि बूढ़े बरगद का चेहरा धीरे-धीरे गम्भीर होता जा रहा है और उनकी ओर हिकारत की दृष्टि से घूर रहा है तथा कह रहा है कि - ”तीसरे हाथ का रहस्य केवल तुम्हें मालूम था। लेकिन तुमने उसे समय पर स्पष्ट नहीं किया और किसी की मौत का कारण बना दिया.......... धिक्कार है तुम्हारे बुजुर्गपन पर।“
इतवारी काका आज बूढ़े बरगद से आँखें नहीं मिला पा रहे थे। उन्होंने जै सिंह के लिए तीसरे हाथ का रहस्य प्रकट किया था परन्तु अब वही रहस्य इतवारी काका को धीरे-धीरे अपने आगोश में समेटता जा रहा था।
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